ये मानवीय सोच के चरम का सफ़र है...



ये मानवीय सोच के चरम का सफ़र है...

"क्या वाकई इन्सान ऐसा होता है... जो जिंदगी भर अपने वादों से मुकरता रहा हो वो किसी की जाती जिंदगी के आखरी वादे के लिए दुनिया को दुश्मन बना ले।.... "



बदले लेने इन्सान किस हद तक जा सकता है... इसकी कल्पना तो इन्सान खुद भी नहीं कर सकता।

पर जब कोई व्यक्ति किसी और से बदला लेने की सारी मानवीय हदें पर कर दे... तो उससे घृणा होने लगती है।और जिसके साथ ये सब घटता है वो टूट जाता है। ये मानव की स्वाभाविक प्रक्रिया है।  पर इसके बाद भी अगर उनमे कुछ बाकि रह जाये... तो।.... और इससे भी बड़ी बात की ये बदला न हो।.. 

इशकजादे... ये फिल्म इस सभी तिकडमो से गुजरती है। इसमें कल्पना से परे घटना क्रम घटे हैं। बावजूद वो बुरे नही हैं।... वो एक नयी सोच को जन्म देते हैं, जो वाजिब है बस इसे अब तक उन्हें देखा न जा सका था।..

चुनावी सभा में जोया (परिणिति ) परमा (अर्जुन कपूर) को एक थप्पड़ मरती है। क्योंकि परमा ने उसके पिता के पोस्टर पर मूत्र विसर्जन कर उसके पिता की बेज्जती की थी। दोनों थोड़ी तकरार के बाद वहा से चले जाते हैं। परमा दुसरे ही दिन जोया से अपने इश्क का इज़हार कर देता है।.. उससे माफ़ी मांगता है... पर जोया उसके समनी शर्त रखती है। जोया ने कभी सोचा भी नहीं था की उसकी शर्त परमा बड़ी गंभीरता से लेगा। 

इस किस्से के बाद से ही दोनों में प्यार हो जाता है। दोनों खो जाते है। एक दिन परमा की शर्त पर दोनों शादी कर लेते हैं। पर तभी परमा अपना रंग बदल कर अपने  जाहिर करता है उसने एक थप्पड़ का बदला लेने के लिए अपनी सारी मानवीय भावनाओ की हद पर कर दी है।.. और इसे ही वो अपना बदला मानता है।.. जोया पर पहाड़ टूट पड़ता है वो सँभालने की कोशिश करती है पर ये मुमकिन नही है।..

वो परमा की जान लेना चाहती है। वो उसके घर पहुचती है... पर परमा की माँ उसे उसके मकसद से बहुत दूर कर देती है।.. जोया अपना बदला नही ले पाती पर कहानी यही से एक नया मोड़ लेती है...

और शायद यहीं से शुरू होता है... एक ऐसा रोमांच जो कभी रोने-कभी हसने, तो कभी गुस्से में तब्दील हो जाता है।.. असल में कहानी का मूल यहीं से शुरू होता है।...

परमा की माँ को परमा के दादा गोली मर देतें है... वो मरते वक़्त परमा से जोया की जिम्मेदारी निभाने की बात कहती हैं। परमा का दादा और जोया का बाप दोनों ही जोया की जान की दुश्मन बन जाते हैं।.. और परमा उससे पहले ही विशवासघात कर चूका है। 

पर अब परमा उससे बचाना चाहता है... 

यहीं सोच को विराम लगता है... परमा की सोच क्या है...

क्या वो सिर्फ अपनी माँ के कहने पर अपने परिवार से बगावत कर अपने दादा की कनपटी में बन्दुक टिका कर जोया को बचाना चाहता है या फिर वो सच में जोया से प्यार करने लगता है।... इन्सान ऐसा भी होता है...

क्या वाकई इन्सान ऐसा होता है... जो जिंदगी भर अपने वादों से मुकरता रहा हो वो किसी की जाती जिंदगी के आखरी वादे के लिए दुनिया को दुश्मन बना ले।.... 

इस फिल्म का अंत बहुत ही कटु है।.. कोई भी दर्शक इस फिल्म की समाप्ति तक इस अंत की कल्पना नही करना चाहता... लेकिन दर्शक ये समझ चूका होता है की फिल्म का अंत क्या है... फिर भी वो सच्चाई से दुरी बनाये रखना चाहता है।...

जो कुछ भी हो... इशकजादे... मानवीय सोच के भंवर के चरम तक को प्रदर्शित करती है।.. बगैर आन्सुयों के भी दुःख, पीड़ा और जहाँ से विदाई के भावनाएं अपनी अभिव्यक्ति इस तरह कर लेती हैं... ये सिखा दिया परमा और जोया ने।... 

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