" वो ख्याल "...!
"मैं अब मुक्त हो गया था... आसमान से बादल भी छंट गए थे... चाँद और तारें फिर मेरे साथ थे... मैं इनमे ही खो गया.... और दुनिया की कलयुगी सोच से दूर चला गया पर महज कुछ वक़्त के लिए.... क्योंकि चाँद-तारें भी कुछ वक़्त के लिए ही मेरे साथ थे... कुछ देर बाद उनकी भी विदाई थी... और फिर मुझे इस कलयुगी दुनिया में लौट कर आना था।... "
यह सवाल अचानक ही आसमान को देखकर मेरे मन में कौंधा. चाँद भी बादलों की आड़ लिए हुए था. मै काफी देर से आसमान को निहार रहा था पर यह ख्याल अनायास ही आया था.
भोजन करने के बाद कश खीचते हुए आसमान को निहारना मेरे दिनचर्या का हिस्सा था। घर की छत इसके लिए उपयुक्त स्थान था।नाईट वर्किंग के बाद भी मैं समय निकाल कर अपने आसमान निहारने के शौक को जो अब आदत ही बन चूका था इसे पूरा करता था। सिगरेट के छल्लों के साथ रात का आसमान मुझ पर जैसे अपना सब कुछ वर देता था।
मैंने इसी जगह से कई दफे तारों को टूटते देखा था।.. पूर्णिमा के कई चाँद जो खुद को मेरे बहुत करीब होने का एहसास कराते थे... ऐसे पल मैंने इसी जगह बिताये थे।
ऐसे ही कई पल मुझे इस आसमान ने भेंट दिए थे... जो सिर्फ मेरे और आसमान के ही दरमियाँ थे...
मेरी इस जगह पर रोज खुद से मुलाकात होती थी। इस दौरान कितना वक़्त गुजर जाता था इसका मैंने कभी कोई हिसाब किताब नही रखा। यंहा मैं दुनिया से दूर दुनिया के बारे में सोचता था. खुद की, दूसरों की, दुनिया की सीमायों को लांघ कर भगवान् तक की समिक्च्छा मैंने यंहा की थी।
आज सुबह ही मुझे एक समाचार मिला था। जो रह रहकर मेरे ख्यालों में कौंध रहा था. मैं उसका ख्याल से तंग आ चूका था। सोचा था यहाँ आकर वो ख्याल भी चला जायेगा... पर मेरी सोच को उस ख्याल ने गलत साबित कर दिया।
दरअसल, कल रात जब मैंने घर के लिए स्टेशन का रुख किया तो मुझे रास्ते में कुछ लोग दिखाई दिये। 1.30 बज रहे थे। मन में उत्सुकता जागी... मैं उनके पास पहुँच गया। कुछ लोग जमा थे... मैंने कुछ देर चुप रहकर माजरा समझने की कोशिश की...सब व्यर्थ रहा... एक घर था जहाँ से रोने की आवाजें आ रही थी... उससे सिर्फ किसी अनहोनी के होने का एहसास हुआ था।.....
उसी वक़्त एक बन्दा पलटा और जाने लगा। मैंने उत्सुकता वश उससे माजरा पूछ ही लिया।
उसने बताया की वो सुखराम का घर है... सुखराम ने आज आत्महत्या कर ली... पोलिस वाले उसका शव ले कर पोस्ट मार्टम कराने रवाना हो चुके थे।..
अब उत्सुकता और बढ़ी... क्या करें मानव दिमाग ही ऐसा है... ऐसी घडी में भी उसे दुख की न सोचकर जानने की ही सूझती है... मैं भी इस रोग से ग्रस्त हूँ।..
उस बन्दे ने बताया की सुखराम का एक ही बेटा है आज शाम उसने सुखराम से पैसे मांगे... सुखराम ने नहीं दिए.. बेटे ने सुखराम को बहुत मारा. अपनी पत्नी के सामने मारा।.. घर से निकाल कर मोहल्ले को यह दिखाया की वो "कलयुगी" बेटा है.... और राम और परशु राम जैसे पुत्रों का जमाना बीत चूका है....
इससे दुखी होकर अंततः सुख राम ने अपनी इहलीला समाप्त कर ली। अब मुझे दुख का एहसास हआ.
मैं इस वाकये को लेकर रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ चला।
बहरहाल, ट्रेन समय पर पहुच गई और मैं भी ऐसे संयोग कम ही होते हैं... मैं जनरल बोगी में चढ़ गया।ट्रेन में मैं दरवाजे में खड़े होकर सफ़र करने में मग्न था... उसी वक़्त एक व्यक्ति अपने पुत्र को लेकर दरवाजे के थोड़ी ही दूर बैठ गया. वो गरीब था... ये उसके पहनावे से ही पता चल रहा था... उसके गोद में करीब 10 महीने का उसका बेटा था...
बच्चा कूछ ही देर में रोने लगा. मैं उस ओर पलटा... तब तक उसके पिता ने उसे पानी पिलाना सुरु कर दिया था
बच्चा प्यासा था। कुछ ही देर बाद वो फिर रोया मैं फिर पलटा... उसने अपने पिता की ही गोद में मॉल त्याग कर दिया था... अब पिता उसकी साफ सफाई में लगा था...
मैं उस पिता को देख कर सोच रहा था की पिता कितने जतन से अपने अंश को पलता-पोस्ता है ... (फिर मुझे सुखराम अनायास ही याद आ गया ... ) और कैसे ये संतान अपनी पिता को मरने मजबूर कर देती है...
रस्ते भर उस पिता ने अपनी संतान की देख रेख के लिए एक झपकी तक नही ली।.. मैं उसके पितृत्व का कायल हो गया...
मेरा स्टेशन आ गया... मैं वहां उतारकर अपने घर की तरफ बढ़ चला... समय देखा सुबह के 3 बज रहे थे.... कुछ देर बाद घर पहुंचा... मैंने चुपचाप खाना निकल कर खाया... और बस छत में पहुँच गया।
सीगरेट जलाते ही मुझ दिन की एक घटना याद आ गई... दुसरे प्रदेश के तिन बच्चे भाग कर हमारे जिले में आ गए थे. वो यहाँ कई दिनों से रह रहे थे... पर वो 1 बहन 2 भाई थे. बहन सबसे बड़ी थी.
पता चला की वो तीनो ही घर से भाग कर आयें हैं. उनके माँ-बाप उन्हें खूब शारीरिक यातनाएं देते थे... तो इन तीनो बच्चों ने भागने का फैसला किया और घर से 500 रूपये लेकर भाग निकले. पर अब उनका 10 साल का सबसे छोटा भाई कहीं खो गया... इसलिए वो पुलिस से मदद मांगने आये थे.....बस.... इन तिन ख्यालों ने आज मुझे न जाने क्यों उलझा कर रख दिया था.... माँ-बाप, संतान। इन तीनो के बिच .... किसी भँवरे में फसे जैसा महसूस कर रहा था मैं....
न जाने क्यों... इन तिन विषयों को मैं एक-दुसरे से जोड़ने का प्रयास करने लगा था... पर यह मुझसे हो नहीं प् रहा था... कभी पुत्र दोषी तो कभी पालक दोषी लग रहे थे...
मैं अजीब असमंजस में पड गया था.... मेरे लिए इस विषय को उस वक़्त ही ख़तम करना इसलिए जरुरी था क्योंकि वो ख्याल मेरे भीतर ही मुझे अपनी आगोश में लिया जा रहा था.... जैसे आज बादलों ने सितारों और चाँद को खुद की गिरफ्त में ले लिया था....
इस बादल ने मेरी सोच, मेरे विचार, मेरी मानसिक क्रियाकलापों को अपनी गिरफ्त में ले लिया था... और मैं उससे निकलने की असफल कोशिश कर रहा था।...
आख़िरकार
स्वार्थ, लालच, मोह..... मैंने इस विषय को भी इन्ही शब्दों का पर्यायवाची शब्द बना दिया....
- जिसमे बेटे ने बाप को लालच के लिए पिटा ....
- पिता, पुत्र के मोह में फंसा हुआ दिखा....
- स्वयं के स्वार्थ के लिए बाप ने अपनी संतानों को घर से भागने पर मजबूर कर दिया....
मैं अब मुक्त हो गया था... आसमान से बादल भी छंट गए थे... चाँद और तारें फिर मेरे साथ थे... मैं इनमे ही खो गया.... और दुनिया की कलयुगी सोच से दूर चला गया पर महज कुछ वक़्त के लिए.... क्योंकि चाँद-तारें भी कुछ वक़्त के लिए ही मेरे साथ थे... कुछ देर बाद उनकी भी विदाई थी... और फिर मुझे इस कलयुगी दुनिया में लौट कर आना था।...
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