इमरजेंसी की आंधी बनते-बनते रह गई उड़ता पंजाब




फिल्म उड़ता पंजाब पर गहराए विवाद ने आपातकाल के दौरान की आंधी फिल्म की याद दिला दी। हां, इसमें फर्क ये है कि उस दौर में सरकार ने सीधे फिल्म को प्रतिबंधित किया था और इस बार सरकार के अधीन काम करने वाली संस्था ने उड़ता पंजाब से सच्चाई को अलग करने की कोशिश की थी। 
हम फिल्मों के फिल्मांकन, उसमें खराब अभिनय की आलोचना, लय से भटके निर्देशन की आलोचना करते हैं, ये तर्क संगत हैं। लेकिन ये क्या? एक संस्था आज भी ना जाने किस वक्त के मापदंण्डों के आधार पर फिल्मों का न सिर्फ वर्ग तय करता है बल्कि उसे प्रतिबंधित भी कर देता है।
क्या इस विषय पर बहस नहीं होनी चाहिए? तय है और सच भी कि ये होना चाहिए। अखबार लिख रहे हैं, खबरिया चैनल दिखा रहे हैं.. तो फिर फिल्मों में क्या छिपाना। आप अगर ना भी दिखाने दें तो क्या लोग नहीं देखेंगे.. जरा सोचिए, और  Angry Indian Goddesses को याद कीजिए। इस फिल्म से सेंसर किए गए सीन को यूट्युब में जारी कर दिया गया था। तब आपने क्या कर लिया। ये उड़ता पंजाब में भी हो सकता था... लेकिन द्वंद सच दिखाने का था। अदालत के एक फैसले के बाद इमरजेंसी लगी थी और आज अदालत के एक फैसले ने वैसे हालात के खिलाफ फैसला सुनाया है।

सच देखना, दिखाना गलत नही है। गलत तो उसे आपका नज़रिया ही बनाता है। जिनसे सीख लेकर हम आगे बढ़ सकते हैं आप उसे ही अपराध की जड़ ठहरा देते हैं, उसे ही दोषी बना देते हैं। दरअसल ये अपनी जिम्मदेरियों से मुंह फेरने जैसा लगता है।
आप देखने दें या न दें.. हम तो देखेंगे। सच को समझेंगे, परखेंगे.. और सबसे जरुरी बात हम उससे सीखेंगे.. और जरुरत पड़ी तो आप को भी सीखा देंगे.. जैसे आपसे पहले वालों को सीखाया था।

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